एक ट्रैफिक पुलिस की विवशता

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शाम 8 बजे मैं उत्तम नगर ईस्ट पर उतरा। जैसे हमेशा होता है, आज भी फुटपाथ पर फल सब्ज़ी और अन्य चीज़ें बेचने वालों का डेरा था। बस फर्क इतना कि एक ट्रैफिक अधिकारी भी था। मेरे मित्रों के लाख समझाने के बाद भी, कि तू सारी जंगें नहीं लड़ सकता, चुन अपनी अपनी जंग, – फिर भी कहीं मेरी आँखों के आगे गलत होते मैं आँखों मूँद लूँ , यह मेरे लिए कठिन है।  यहाँ तो फिर यह सार्वजनिक स्थल का अनधिकृत प्रयोग एक रोज़ का मसला है।

पुछा मैंने ट्रैफिक अफसर से, “सर , इन ठेले वालों को कोई परमिट मिला है क्या यहाँ खड़े होके बेचने का?”

“अब ये  तो तू  SHO से पूछ, वो आगे गाड़ी  में बैठा है “

“आप नहीं जानते इस बारे में कुछ भी?”

“तू देख रहा यहाँ?” उन्होंने इशारा किया अपने कंधे पर। नाम था इनका रमेश  सिंह। फिर बोले, “यहाँ कोई फूल तारे नहीं हैं, मैं बस एक कांस्टेबल हूँ। मेरे पावर में जो हो सकता है मैं वह ही कर रहा हूँ । इन्हें कहने के अलावा मैं कुछ नही कर सकता। वो आगे अफसर है, 2 तारे वाला। उससे पूछ – पूरी पॉवर के बाद भी क्यों नहीं करता वह कुछ”

मेरे पास इतना समय तो नही था। मैं चलने लगा अगली बस पकड़ने। कांस्टेबल आए मेरे पीछे।
“सुनो, क्या काम करते हो?”

मैं अगर प्रोडक्ट मेनेजर कहता तो और सवाल होते। इतना कॉमन नही यह प्रोफेशन अभी।
“इंजीनियर हूँ”

“आप छोटे हो, बेटा समझ के राय दे रहा हूँ। इन झमेलों में मत फसों। सामने आके बिलकुल नही। सब को पता है क्या गलत हो रहा है। यहाँ सब खाने वाले बैठे हैं। मैं वर्दी पहनकर ज्यादा बोल नहीं सकता।”

मुझमें गुस्सा भी था, साथ में इनके लिए चिंता भी। मेरे पिताजी की उम्र के तो अवश्य होंगे। आज भी इन्हें भय में जीना पड़ता है। वर्दी पहन कर भी सत्य कहने में यह स्वयं को सुरक्षित नही पाते। इनके चेहरे पर विवशता साफ़ थी। कुछ कहना चाहते थे। जैसे लव्ज़ जुबां पर आ ही चुके हों। इस पल, इनकी विवशता का मौन ही, शब्दों से अधिक गूंज रहा था।

उन्होंने इधर उधर देखा । फिर बोले, “इन सबको इंसान की जान से पैसा ज्यादा मीठा लगता है। ऐसे सामने नजर में आओगे तो कब क्या कर दें तुम्हारा इनका भरोसा नही।”

“चिट्ठी तो लिखी है मैंने इन सबको – MCD को, पुलिस को, केजरीवाल को”

“बस यूँ ही परदे में करो। कहीं जाने की जरूरत नहीं। किसी से कुछ कहने की जरूरत नही। तुम्हारे आगे पूरी जिंदगी पड़ी है। ऐसे झगड़ा करने से कुछ नही होगा।”

मैं धन्यवाद कह कर आगे चलता बना। जानता था कि यह जो कर सकते हैं वह कर रहे हैं।

मुड़ के देखा वह फिर आ रहे थे मेरे पीछे। समझ नही आ रहा था कि रुकूँ या चलता रहूं। आगे ठेलों और लोगों की इतनी भीड़, कि  आगे बढ़ना सरल विकल्प था ही नही। इतने में मैंने थोड़ी जगह बनाई, वे मेरे समीप आ चुके थे।

“हम भी क्यों नही चाहते की टैक्स देते हैं तो फुट पाथ पे चलने की जगह हो, सड़क पर गाडी चलाने की जगह हो। बिना वर्दी के हमें भी तुम्हारी तरह ही खेद होता है फिर भी सड़क पर ही गाडी पार्क करनी पड़ती है।”

सिस्टम से इनका रोष साफ़ था। शायद यह कष्ट बाटने के लिए या केवल अभिव्यक्ति के लिए भी पर्याप्त अवसर न मिला हो।

“हमारा पूरा डिपार्टमेंट केजरीवाल  के विरुद्ध है। फिर भी मैंने उसे वोट दिया था। उससे पूछो की क्यों नहीं करता कुछ यहाँ के लिए”

डाबड़ी जाने के लिए इ-रिक्शा तैयार खड़ा था ।

“मैं आपकी सलाह याद रखूँगा”

एक बार फिर धन्यवाद करके मैं रिक्शे में बैठ गया।

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PS :  गोपनीयता के लिए ट्रैफिक कांस्टेबल का नाम बदल दिया गया है

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